लोगों का क्या है,
लोग तो भखेड़ों की बस्ती से
निकल पड़ते हैं सब सामान बटोरे
पर मैं, मैं तो वहीँ रह जाता हूँ
महीनो किराया दे
वहीँ बस जाता हूँ
दुर्घटना स्थल के
चक्कर लगाता
बार बार दोहराता
जो चीज़ें हलक पर रुक गयी थी
सब उड़ेल देता
दिन रात वहीँ पड़ा रहता
जब तक उन्माद के गीद
गोते लगाना शुरू नहीं कर देते
“मर गया है लगता है ये
यहाँ से हिलेगा नहीं
आओ विवेकता के व्यंजन
का भोग लगायें
काफी दिन के भूखें हैं
क्योंकि इसके जीवन में सब
सही चल रहा था |”
वहीँ समाधी लेकर
ध्यान में लग जाता
राख में छिपी चिंगारी में
मंद ही मंद जल कर
जाप करता
उन सब बातों का
जो कभी न निकली
जो लांछन कभी न लगा
सब लगा देता,
और घोषित कर देता
अपने ही न्यायालय में
अपराधी और उसका अपराध |
कैसे सब आते हैं
गैरो के बस्ती में
और सब गिरा कर
सब जला कर
यूँ चले जाते हैं
बिना माफ़ी मांगे?
दाना पानी तक नहीं पूछते?
तो आंसू तो कोसों दूर है
हाथ कहाँ इतने लम्बे
की पोंछते फिरे?
उस आग में
न जाने कितने भस्म हो जाते
बेपरवाह माचिस को
कहाँ थी खबर?
अब एक और आग है लगानी
उन सब की लाशें
भी तो है जलानी
जिन सब को तीखे तीरों
से छलनी कर गए दुर्जन
उन सब के परिजनों के साथ
शोक है मनाना
और एक बार फिर है समझाना
जीवन की परिभाषा
जहाँ ऐसे तीर रोज़ ही चलते
और लाशें रोज़ ही संवरती |
जहाँ जहाँ ही जाता
हर राख में रुक जाता
और ढूंढ़ता उस में
मिट्टी के कण
जहाँ तर्क अब भी ज़िंदा है
रो रहा यह कह कर
की मैं यह आग बुझा सकता था
क्यों नहीं किया मेरा उपयोग?
ऐसे हर बस्ती में मैं
छोड़ जाता अपना खंड,
और जब भी वहां से निकलता
रह जाता और अधूरा,
ऐसे न जाने कितनी बस्तियां थी
न जाने कितने टुकड़े छोड़ आया
अब शायद पीछे छोड़ने को
कुछ बचा ही नहीं |