नौ महीने

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पहला महीना

मेरी माँ का चिंतित मन मैं अच्छी तरह से भाँप सकता हूँ। वह अकेली एकांत में बैठी हैं। चेहरे पर घूँघट होने के बावजूद उनकी दृष्टि हल्के बंद दरवाज़े से आती हुई रोशनी पर टिकी है। उनका मन व्याकुलता के सागर में गोते खा रहा है। मन को अब भी विश्वास नहीं हो रहा कि उनका विवाह हो चुका है, कि वह अब एक पराए घर की हो चुकी है। उन्हें उम्मीद न थी कि उनका बचपन इतनी जल्दी समाप्त कर दिया जाएगा। यह न सोचा था कि अपने घर की ज़िम्मेदारियाँ की बागडोर के पश्चात यूँ अचानक एक और उतरदायित्व का टीला इस तरह सामने प्रकट हो जाएगा।

उनके व्याकुलता के कई और कारण भी हैं। हाथ का पंखा हिलाते-हिलाते उनकी बाहें दर्द हो चुकी है पर पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा। बंद कमरे में केवल एक खिड़की है, जिससे बाहर के कोलाहल का अनुमान लगाया जा सकता है। इतनी गर्मी में बेचारी को किसी ने पानी तक नहीं पूछा। भूख भी ज़ोरों की लगी है। अभी अपने घर में होती तो कुछ ना कुछ खा भी लिया होता। अब वह समाज का हिस्सा बन चुकी हैं, यहाँ अब अपनी मनमानी नहीं चलेगी।   

वह सोच रही है कि न जाने और कितनी बार कोई अनजान फिर से कमरे में घुसा चला आएगा और उन्हें फिर अपना घूँघट उठा ख़ुद को किसी संग्रहालय में रखी वस्तु हेतु अपने चहरे को दर्शाना पड़ेगा। हालाँकि उन्हें अपनी तारीफ़ सुनने में कोई एतराज़ नहीं, पर यह सिलसिला इतनी बार चल चुका है कि अब उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा। इस तरह बार-बार कोई आकर विश्रांति पर यूँ विराम लगाएगा, यह न सोचा था।

कहीं हल्की-सी सांत्वना है कि ग्रीष्म ऋतु की ऐसी भयंकर गर्मी में उन्हें फिलहाल बाहर तो नहीं निकलना पड़ेगा। उनके पास अपना अलग कमरा है, जिनके सहभागी केवल उनके पति हैं जो सुबह से कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे। सवेरे कब उठ कर निकल गए, पता ही नहीं चला।

मर्दों की आवाज़ तो बाहर आँगन से ही सुनाई पड़ती है। उनकी अपने से दूरी का अनुमान वह इस तरह लगा सकती थी। पिताजी की आवाज़ मैं अब पहचानने लगा हूँ। उनकी बातें सिर्फ़ खाना खाते समय या संध्या के पश्चात ही सुनाई पड़ती।

अचानक चौखट पर फिर से हलचल देख, मेरी माँ सिमट गई। उनके पल्लू से छनकर आने वाली रोशनी से लोगों के चेहरे तो नहीं दिखते, पर कोई अंदर आया है, इसका अनुमान लग जाता। आँखें स्वतः ही घूँघट के अंदर होते हुए भी झुक जाती। नीचे जूतों को देख वह अंदाज़ा लगाती कि कौन आया।

इस बार कोई बुज़ुर्ग थीं, साथ में सास, जो माँ का घूँघट उनकी अनुमति के बिना ही उठा चुकी थीं।

“कैसी लगी?” सासू माँ बोली।

“वाह! खूब सुंदर!” एक बुढ़िया की आवाज़ आई। मेरी माँ ने शर्म से नेत्र नीचे कर रखे थे। वह तुरंत ही उठीं और उस बुढ़िया के पैरों को छूने लगीं। 

“हाँ, अब याद आया इसे पैर छूना,” सासू माँ गरजी। “जानती भी हो, यह कौन है?” 

इससे पहले कि माँ सासू माँ की ओर देखती, सास बोल पड़ी, “यह गनी द्विवेदी की अम्मा हैं, हमारे पड़ोस में रहती हैं। वृद्धावस्था में भी तुम्हें देखने चली आई। इनके हमारे ऊपर इतने उपकार हैं कि तुम्हें तो इनके पैरों में पड़े रहना चाहिए।” 

दादी माँ मुस्कुरायी और बोली, “अभी नई आयी है, इसे कहाँ अभी इतना कुछ ज्ञान है इस गाँव के बारे में?”

“हाँ, लेकिन ऐसे ही तो सीखेगी!” सास ने दांत किटकिटाते हुए कहा।

“सब सिखा देना और अपने जैसी समझदार बना देना,” वृद्धा ने कहा। थोड़ी देर यहाँ-वहाँ की बाते कर, “खुश रहो, पूतो फलो!” का आशीर्वाद देकर वह सास के साथ वहाँ से चली गई। मेरी माँ फिर घूँघट डाले बिस्तर के एक छोर को पकड़कर वहीं बैठ गई।

बाहर से आती आवाज़ों से प्रतीत हुआ कि तरह-तरह के पकवान बन रहे हैं। खिड़की से झाँक कर देखा तो बाहर का दृश्य देख कर दंग रह गई। रसोई के पास पाँच-छ औरतें मिलकर काम कर रही थी। एक दो लड़के ज़मीन पर इधर उधर बैठे थे। मेरी माँ की दो सासे थी, जिनमे से एक पिताजी की चाची। दो छोटी बहने जो मेरी माँ की ननद लगेंगी वह भी खाने परोसने में हाथ बटा रही थी। दो देवर भी थे जो खाने परोसे जाने का इंतज़ार कर रहे थे। औरतें गप्पे लड़ाते-लड़ाते खाना बना रहीं थी। घर की बेटियों को छोड़कर सभी औरतों के सर पर आँचल था, पर सब बहुत आश्वस्त प्रतीत हो रही थी। इतनी गर्मी में काम करने के बावजूद सबमें एक अनोखा जोश था।

उन्हें देख माँ के मन में विचार आया, “क्या मैं भी इतनी निर्भीकता से कभी यहाँ इस तरह रह पाऊँगी?”

पिताजी के पिता नहीं थे पर माँ अब भी जीवित थी। उनके चाचा-चाची के चार बच्चे थे – दो लड़कियाँ और दो लड़के। सब मेरे पिताजी से उम्र में छोटे। संपत लाल, १८ और चंपत लाल, १३, अभी दसवी और पाँचवी कक्षा में ही पढ़ते थे। निपुण और निमि १५ और १३ साल की थी। 

बाक़ी बच्चे पिताजी के सगे भाई-बहन हुए – जिनमे से पिताजी सबसे बड़े। उनके एक भाई, संविराम, उम्र १७ और एक बहन संयोगिता जिसकी उम्र घर में सबसे छोटी मात्र १० वर्ष की थी। घर में सबसे बड़े होने का मतलब, मेरे पिताजी पर छहों बच्चों की ज़िम्मेदारियों का टीला था। उनके लिए सब समान थे। सगे और चचेरों में उन्होंने कभी भेद नहीं किया था। 

“दीदी! घर में बहू के होते, हम लोग इधर खाना बनाये?” छोटी सास ने चिढ़ते हुए पूछा।

“हाँ, वहीं मैं सोचूँ, अब तो हमारा बावर्ची आ गया है।” निपुण जो की मेरी माँ की बड़ी ननद हुई उसने मज़ाक़ करते हुए कहा।

“कुछ सीखा-विखा के भेजा है कि नहीं?” निमि, छोटी ननद बोली।

“भूल गई? कल सब के लिए चाय तो बनायी थी,” संयोगिता, जो सबसे छोटी ननद थी, उसने याद दिलाया।

“कल की चाय बहुत अच्छी थी,” चंपत ने याद करते हुए कहा।

“क्या ख़ाक अच्छी थी, चाय तो माँ जैसी कोई नहीं बनाता,” संपत ने उसकी बात काट दी।

“सुना है उसकी माँ नहीं थी, तो घर के काम सब ख़ुद करती थी,” छोटी सास बोली। 

“फिर तो सब आता होगा,” संविराम देवर बोला।
“नव-नवेली दुल्हन है इसका मतलब ये नहीं कि घर में बैठे रहना है, थोड़ी घिसाई तो करनी पड़ेगी,” निपुण ने झिझकते हुए कहा।

“अभी तो दो ही दिन हुए हैं, कल से अच्छे से काम पर लगाएँगे। जरा नमक देना!” सासुमा ने छौंका लगाने के बहाने सबकी बात पलट दी।

थोड़ी देर बाद किसी बच्चे के पैरों को अपनी ओर आता हुआ महसूस किया। नाम था गुड्डू, मात्र ८ वर्ष का छोटा-सा बालक जो कि पड़ोसी का पुत्र था और अक्सर यहाँ आता-जाता था। 

पल्लू ऊपर कर उसे पुचकारा और आग्रह किया, “गुड्डू, इन्हें ज़रा भेज दीजिएगा।”

“किसे?” गुड्डू ने पेट खुजाते हुए पूछा।

“पृथक जी को!” माँ ने मेरे पिताजी का नाम घबराते हुए लिया। उनका यूँ नाम लेना उन्हें बड़ा ही अजीब लगा। 

“बड़े चाचाजी?” गुड्डू ने तुरंत परिस्तिथि भाँपते हुए पूछा।

“हाँ हाँ वही” इतने छोटे बालक को इतना तेज़ देख माँ मुस्काई।

“मुझे क्या मिलेगा?” गुड्डू ने चालाकी से पूछा।

“ढेर सारा प्यार।” माँ ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

“ना ना! उसका मैं क्या करूँगा? कुछ मिठाई वगेरह है तो दो!” गुड्डू ने नये सूटकेस की तरफ़ देखते हुए कहा।

माँ ने इधर उधर देखा और पास में पड़े मिठाई का डब्बा खोलकर उसमे से एक मोतीचुर का लड्डू निकालकर उसे थमा दिया। लड्डू देखकर उसकी आँखें चमक उठी और पूरा लड्डू एक बार में अपने छोटे से मुँह में किसी तरह डालकर वह कमरे से बाहर चला गया।

एकांत में, माँ समय को पैरों की आवाज़ों से जोड़ कर माँ अपना मन बहलाने की कोशिश कर ही रही थी कि अचानक परिचित पैरों की आवाज़ सुन कान खड़े हो गए। पिताजी गुनगुनाते हुए घर में घुसे और पूछा, “बोलो, सब ठीक है ना?”

माँ ने पल्लू ऊपर कर तुरंत रंज जताया, “कहाँ चले गए थे आप मुझे अकेला छोड़कर?” उनकी आँखों में उपद्रव का झरना उमड़ता प्रतीत हुआ।

“अकेला? इतने सारे लोग तो हैं यहाँ!” पिताजी ने मुस्कुराते हुए कहा।

पर माँ की आँखों में उमड़ते आंसुओं को देख उन्होंने अपना जवाब तुरंत बदला, “कहीं नहीं, बस यहीं आँगन में था। कहो, क्या बात है?”

यह पूछ मेरे पिताजी ने माँ का हाथ कोमलता से थाम लिया। उनके स्पर्श मात्र से माँ के शरीर में शालीनता की एक लहर दौड़ पड़ी। उन्होंने अपने आँसू पोंछते हुए पिताजी से पूछा, “आपने कुछ खाया?”

“हाँ, आँगन में तो कोई न कोई कुछ न कुछ खिला ही दे रहा। कभी पकौड़े कभी समोसे—एक से एक पकवानों का सिलसिला सुबह से ही चल रहा। दुलारे राजा जो ठहरे हम!” पिताजी ने मज़ाक़िया तौर से अपनी मुँछे तानते हुए कहा।

माँ मुस्कुराई और दरवाज़े की ओर देखने लगी। पिताजी ने स्तिथि आंकते हुए पूछा, “तुमने कुछ खाया या नहीं?”

जब माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया तो पिताजी समझ गए और तुरंत आवाज़ लगायी। “निपुण! खाना लगा दो अगर बन गया हो तो।”

“नहीं, नहीं! उसे क्यों परेशान कर रहे हैं।मैं…” माँ मना करने लगी।

“अरे कोई बात नहीं।” कह कर पिताजी उठे और फिर थोड़ी देर बाद एक थाली में रोटी, सब्ज़ी और दाल चावल लिए वापस कमरे में आए।

धीरे धीरे संकुचाते हुए माँ ने स्वादिष्ट भोजन किया। जब हाथ धोने बाहर निकली तो सबकी नज़र अपने ऊपर पाई वह भी इस तरह की मानो अनकहा कह रहे हों की बस एक दिन और नई रह लो फिर तो काम करा करा कर पुरानी बना देंगे। कुछ पड़ोसी बच्चे जो आँगन में थे, माँ का रास्ता रोक कर मज़ाक़िया अन्दाज़ में नाच नाच कर, “कनिया हे, थोड़ा धनिया दे!” गाने लगे। उस पल में मेरी माँ उस घर से अपरिचित सबके मज़ाक़ का पात्र महसूस कर रही थी। कदम धीरे-धीरे बढ़ाते हुए सहम कर वह अपने कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि मेरे पिताजी बाहर निकल आए। उन्हें सामने देख सबकी कानाफूसी तुरंत बंद हो गई। 

द्वार पर किसी ने दस्तक दी, और पिताजी को माँ को फिर छोड़कर जाना पड़ा। माँ कुछ कह भी न पाई और मन मसोसकर बिस्तर पर जा कर बैठ गई।

बाहर हंसी-मज़ाक़ का माहौल था, पर माँ का मन अब भी अधीर और आशंकित था। हर एक ठहाके के साथ अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता। 

“कल क्या होगा? मैं यहाँ कैसे रहूँगी? मेरे अपने कब आएँगे?” यह सब सवालों के चक्रव्यूह में घिरकर मेरी माँ बिस्तर पर लेट गई। 

उन्हें तो मेरा पता भी नहीं पर मैं उनके जीवन में आ चुका हूँ। मैं अजन्मा अवश्य हूँ पर मुझे सब ज्ञात है। मेरी माँ की व्याकुलता की मुझे परिपूर्ण अनुभूति है। उनके आंसुओं की उमड़ने मात्र से मुझ में वेदना उमड़ पड़ती है।  

घबराओ नहीं माँ, मैं आ रहा हूँ। तुम्हारी हर पीड़ा का इलाज करने। तुम्हारे इस अकेलेपन को हमेशा हमेशा के लिए दूर करने। तुम्हारे समस्त कष्टों का निवारण करने। तुम्हारा ख़्याल रखने। बिन कहे तुम्हारी सारी तकलीफ़ें समझने और तुम्हें दुनिया की सारी ख़ुशियाँ देने। 

फिर तुम कभी अकेला नहीं महसूस करोगी।

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