कभी रोका ही नहीं ,
कभी टोका ही कहाँ ?
खुले मैदान में दौड़ लगाने से ,
पत्थरों की बिछी चादर पर
ना जाने कितने कांटें थे ,
सब चुभ जाने थे ,
सब छिप जाने थे
मेरी चौकस नज़रों से ,
आवाज़ बन कर चिल्लाने थे ,
आंसू बन कर बह जाने थे |
तो लो फिर –
कर ली मैंने अपनी मनमानी ,
अब कोसने को कोई है ही नही ,
सामने रखा दर्पण है ,
बस यही है सब पीड़ा का जड़ ,
यही है मेरा अपराधी ,
इसे किसी का खौफ्फ़ नही ,
इसे तो काज करनी है ,
फिर चाहे जो भी भरनी है ,
सह जाना हर दर्द इसे ,
बेगाना हर वक्त लगे ,
उठना है गिर कर पड कर ,
चलना है फिर भी उठ कर ,
उड़ना है क्यूंकि पर इसके
वंचित है उस आसमान से
जिसे इक ही नज़र में चाहा था ,
पाना था हर चीज़ जिसे ,
पाने को मन्न को मारा था |
तो फिर क्या ही पत्थर ,
क्या ही कांटें ?
यह तो कंकड़ फूल गलियारे हैं ,
यह सब तो आने ही आने हैं ,
पर्वत के चोटी पर बैठे
देखो कितने दीवाने हैं |
तकलीफ तो हिस्सा है जीवन का ,
हर वक्त तुम्हे परखता है ,
तूफ़ान में देखो
घर जाने को
कैसे परिंदा उड़ता है |
इंतज़ार कर परिणामों का ,
तेरी करतूतें तुझे बनाती हैं ,
कभी न जीता जो ना भागा ,
वो अभागा नीचे सड़ता है |
तेरी तकदीर तो लिखी है ऊपर ,
ऊंचाई से क्यों डरता है ?
चढ़ता जा बस आंख मूंद कर
हर कठिनाई सफलता है |