क्या पता कैसी थी वो ?
अब तो सदियों पुरानी होगी,
कैसा था चेहरा ?
कैसी थी आँखें ?
और कैसी मुस्कान ?
कभी देखा ही नही,
तो क्या समझूँ कैसी थी वो ?
भूल गयी हूँ चेहरा उनका
कहती अक्सर माँ,
बचपन में ही खो दिया था,
तो क्या समझाऊं कैसी थी वो ?
पर किस्सों में है अब भी ज़िंदा,
माँ की आँखों से निकलते
वह ख़ुशी के फ़ौवारे,
जब बतलाती उनसे शरारतें,
तब होता यकीन,
की शायद
ऐसी ही थी उनकी माँ |
वर्णन करने दिल है दौड़े,
पर गठित करने को कुछ,
हाथ आता ही नहीं |
प्रतिमा में आकार नापता,
भांपता उनके ह्रदय को,
जो मेरी माँ के ह्रदय से
शायद ही कम रहा होगा |
वह चार कौर रोटी के
जो सब खिला गयी हमको
खुद भूखा रह कर
ऐसा ही त्याग रहा होगा |
जो लड़ने को तत्पर दुनिया से
हमारी क्षणभंगुर ख़ुशी
के चंद पलों के लिए,
ऐसी ममता का बवंडर रहा होगा |
बच्चों की चोटों पर
मल्हम लगाते बहते आँसूं,
ऐसी संवेदना की धारा,
शायद उनमे भी छिपी होगी |
स्वार्थियों के बस्ती में
एक निःस्वार्थ भाव जैसी होगी
कष्ट देने वालों के भी हित में
ही हमेशा सोचती होगी |
धर्म अधर्म के कटघरे में
खड़े होकर भी
दूसरों की सज़ा भुगतने को
तत्पर रहने वाली मूरत होगी |
खुद का निवाला
पहले परिवार को खिलाया,
ऐसे पेट काट काट कर
रहने वाली होगी |
उनके पास भी कहानियाँ होंगी,
रोचक बातें जहान की,
खिलखिला देने वाली,
वह भी गुदगुदी सी होंगी |
बच्चोँ को चैन की नींद
सोता देख कर,
एक और दिन कट जाने पर,
मंद ही मंद मुस्काने वाली होंगी |
हर क्रोध के ज्वाले को
शांत कर
हर डाँट को
फटकार को
घोंट कर पी जाने वाली होंगी |
पत्थर ना फेंकना
मेरे भ्रमित सागर में
कहीं उनको चोट न लग जाये,
क्योंकि जब भी दर्शन को मन है तरसे
तो सिर्फ और सिर्फ दिखती है –
मेरी माँ |