दोपहर

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दोपहर !
तेरे बारे मे कोई न कहे,
याद तुझे कोई न करे |

तेरे चुपके से आने का
इंतज़ार कौन ही करता है ?
तू खामखा खड़ा है
चौखट पर,
लोटे की ताक मे,
तुझे अर्चन देने
कौन ही आएगा ?

मुर्झायें डालों पर
हर अंग सिकुड़ता है,
कराहता हर मन,
कोसे तुझे ज़ुबाने,
बेहिसाब नापे तेरी कब्र,
कि कब होगा तेरा संहार ?
कब होगा सबका उत्थान ?

तेरी धूप से बचने को
सब खोजे छाँव,
हर खेल डरता है
तेरी आहट से,
छिपते हैं घरों की चादर में,
लिपटे हैं नाजाने कितने बचपन |

तेरे आने से जो पीड़ा
मन को यूँ चुभती है,
इतनी निर्भीकता तू कहाँ से लाता है ?
कौन है तेरी हिम्मत ?
रोज़ाने की दस्तक,
कैसे तू निभाता है ?

सवेरे का हत्यारा,
संध्या का बैरा,
तू कहाँ बीच में अड़ा है ?
मिल जाने दे दोनों को,
दीवार सा क्यों खड़ा है ?

थोड़ा ज़्यादा है,
थोड़ा तू कम,
पर कभी पर्याप्त नही,
कभी परिपूर्ण नही
है तेरी ये चिंता,
क्यों नही करता दिन रात एक ?

तू न आदि है न अंत,
तू है कटी पतंग |
न इधर है न उधर,
फिर भी है तू मलंग |
चलने दे पहिये को,
रह जा सामान्य,
छत पर चढ़ जाने पर
सीढ़ी को कौन ही याद करता है ?

हर दिन तू मरता है,
फिर भी दफ़्तर
तेरा हर दिन ही लगता है |
तेरी बाट ना जोहे
कोई भीनी आँखें,
तू क्यों ही है सहचर
दुनिया के दस्तूरों का ?

तेरे चल बसने का मातम
कौन ही मनाएगा ?
तेरे ढलने का जश्न
है सांझ की रंगरेली,
और रात मिटा देगी
तेरा वजूद |

हर दिन तू उठता,
हर दिन ही गिरता,
सुबह का बंधक,
कब तक यूँ मरेगा ?
कब कुछ अलग करेगा ?
और फिर सबको रहेगा तेरा इंतज़ार ?

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