कुएँ का मेंढक

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कुँए का मेंढक
क्या तू जाने
दुनिया कितनी गोल रे
घर के अंदर
सब है सीधा
बाहर सब अनमोल रे |

तुझे लगता है
सब सीमित है
आशाओं के किले में
बाहर की दुनिया
तो लगती
मनोरथ के जिले में |

आकाश समंदर
सब है नीले
फिर क्यों जानु रंग मैं
किस्मत हो जब
मेरी काली
क्यों न पकड़ूँ पलंग मैं ?

खा कर कुछ भी
मैं पड़ जाऊं
कल के इंतज़ार में
कल की चिंता
कल कर लेंगे
क्यों जागूँ बेकार में ?

रस्सी आती
जाती रहती
सिल पर भी निशान है
डोल तो फिर भी
गाना गाती
कुँए की ही शान मे |

क्यों सीखूं
अनजाने तिकड़म
यहाँ भी तो परवाने हैं
पेट भरे तो
सब है उत्तम
बाकि सब बेगाने हैं |

दो पल मेरे
चाँद और सूरज
आकर वो बतियाते हैं
अक्सर बादल में
छिप जा कर
आपस में चिचिआते हैं |

ज़रा देखो
इस अजूबे को
कैसे अकड़ा सोता है !
एक कुंड है
इसकी दुनिया
उसमे जकड़ा होता है |

वहीं खाता है
वहीं पीता है
वही सब फिर दोहराता है
वही पानी में
डुबकी लगा कर
वहीं सीधा सो जाता है |

इसका समंदर
कुँए के अंदर
क्यों ही बाहर निकलेगा
लहरों के
करहाने से
क्यों ही भला ये पिघलेगा |

बहुधा विचारे
क्या है बाहर
जो सब बड़ाई करते हैं
रहने को ज़िंदा
हरदम आतुर
सब लोक लड़ाई करते हैं |

लाख जला लो
बुझती आंखें
आभार रहूं आजीवन मैं
कुछ नही
तो कुँए का अनुभव
है ना मेरे जीवन में |

रात चाँदनी
सिर पर सोये
तारों के बाज़ार में
कितने थे
और कितने टूटे
फिर भी क्यों लाचार मैं |

अगर लगा लूँ
पूरी ताकत
फिर भी रहूँगा कुँए में
कब हारूंगा
कब जीतूंगा
ज़िन्दगी के जुए में |

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