कांच की मछली,
कांच में रहती,
पानी तो बस ढोंग है,
घर है मेरा चार दीवारी
रस्ता डामाडोल है |
खाना मेरा
दाना होता,
हर सुबह की जंग है,
कभी कभी तो
कुछ नही मिलता
पानी के इस रंग में |
सबका व्यंजन,
मैं मनोरंजन,
भूखे मुझको ताकते,
कितनी बड़ी है,
कितनी छोटी,
अक्सर मुझको आंकते |
लोग मदारी,
मैं हूँ बंदर,
बस मुझको है नाचना,
कुछ न करूँ तो
छेड़ते मुझको
कोई न सुनता याचना |
खोल दो ढक्कन,
मूंद लो आंखें,
मुझको कहाँ ही भागना,
गिर भी गयी
तो मर जाउंगी
क्यों ही मुझको जागना |
सागर के सपने,
क्यों मैं देखूं ?
जब लिखी हूँ एक चुल्लू में,
पानी कम तो
है ना आंसू
इन आशाहीन आँखों में |
मेरा विधाता
कर गया आधी
आयु तेरी चंगुल में,
बची-खुची जो
ज़िन्दगी है,
वो भी तो फ़िज़ूल है |
आता था मुझको
साँसे लेना,
जल के उस नहर में,
शीशे के घर में
रह कर देखो,
भय के इस शहर में |
छोटी सी अब है
दुनिया मेरी,
कांच के इस महल में,
सीमित जैसी
तेरी वित्ति
वैसी अब निर्जल मैं |
कांच के पुतले,
क्यों तू दौड़े?
रचता भाग्य कोई और है,
चल तू राही
फूंक फूंक कर,
पत्थर चारों ओर है |
खुश रहे
बस यही है आशा
तू अपने कांच के टीले में,
मैं तो कब की
टूटी पड़ी हूँ,
नित्य शोक के जिले में |